अब ये बडी अजीब स्थिति
है कि लेखक को यही नहीं मालूम हो कि क्या लिखे…तो मामला पेचीदा हो जाता है. वैसे तो
संपादक या मालिक प्रबंधक बता देता है कि इस विषय पर कुछ ठोक ठाक कर जल्दी भेज दिजीये,
कल के ही एडीशन में चेपना है. तो इसमें कोई दिक्कत नहीं होती, बस विषय के बारे में
अपने दिमाग को एक जगह टिकाओ और उन विचारों में आवश्यकतानुसार कम ज्यादा सींग घुसडते
हुये लिख डालो, पांच मिनट में लेख तैयार है. आपकी टाईपिंग की स्पीड कम हो तो कुछ ज्यादा
भी लग सकता है.
पर यहां तो कोई विषय
ही नहीं है…. फ़ुरसतिया जी ने फ़रमान जारी कर दिया कि बस सींग घुसेडने हैं चाहे कहीं भी घुसेड दो अबकि बार...खुली छूट है....चाहे टेपरिकार्डर,
अनशन, साल दर साल, अच्छे दिन या और कोई नही मिले तो "भाईसाहब" को ही घुसेड दो…पर घुसेडो जरूर, भले ही भाईसाहब को सींग घुसेडने के चक्कर में "भाभीजी" से पिट जाना पर चूकना मत. वैसे भी हमारे गुरूजी का कहना है कि व्यंगकार वही जो साठा पाठा होकर भी बछडे की तरह कहीं भी सींग घुसेडने में माहिर हो.
अब हमारी आदत है कि
हम चाहे और कुछ ना घुसेडे पर सींग घुसेडने की आदत पुरानी है और इसी वजह से हमारे सींग
भी आजकल कुछ भोथरे से हो चले हैं. हम सोच रहे हैं कि “बाज” की तरह हम भी कहीं एकांतवास
में जाकर अपने पुराने सींग तोडकर नये उगवा आयें. कोशीश और हिम्मत कर रहे हैं, क्योंकि
हम नब्बे दस के भी पार होना चाहते हैं जो कि नये सींगो के बिना संभव नही होगा.
हां तो हम “क्या लिखूं…”
विषय पर अपने दिमाग को टिकाने की कोशीश कर रहे थे पर मुश्किल है…..आज तक कोई मौका ही
नही आया ऐसा….अब हम जितना सोचते उतना उलझते जा रहे थे, हमने “माता बखेडा वाली” का भी
ध्यान किया, प्रार्थना की….हे माता तू ही कुछ बता….दिशा दे….माता ने कुछ हल्का सा इशारा
दिया…..पर स्पष्ट कुछ नही कहा. देवी देवताओं की बस ये ही एक आदत हमें आज तक पसंद नही
आयी कि बस इशारा कर देते हैं, अब समझ लो तुम्हें जो समझना हो, और साफ़ साफ़ कुछ कहते
नहीं. अब ये भी कोई बात हुई? रोज सुबह शाम फ़िर अगरबत्ती का खर्चा काहे करते हैं?
थक हार कर हमने सोचा
कि “संटू भिया कबाडी” के अड्डे पर जाकर ही दिमाग फ़्रेश करते हैं फ़िर वापस लौटकर कुछ
सोचेंगे. भिया के अड्डे पर एक से एक विचारकों साहित्यकारों का जमावडा रहता है. वहीं
बैठे बैठे किसी कबाडी विचारक से लिखने की प्रेरणा भी मिल जाती है. आप समझ सकते हैं
कि कबाडी के गोदाम में सारे अनुभवी साजो सामान ही जमा रहते हैं. जैसे व्यंग और साहित्य
की दुनियां में किसी नये लिक्खाड को जगह नही मिलती इसी तरह भिया के कबाडखाने में भी
नये का क्या काम? वहां तो खेले खाये साठे पाठे लिक्खाडों की तरह दुनियां से विदा होते
अनुभवी साजो सामान ही जगह पाते हैं और इन सामानों के अनुभव से साहित्य व्यंग की जो
प्रेरणा मिलती है वो और कहीं से नहीं मिल सकती.
वहां पहुंचकर देखा
तो संटू भिया कुछ पुरानी किताबें.. मैगजींस…पेन द्वात के ढेर को छांटने में व्यस्त थे.
हमने उनके ध्यान को भंग किया तो हमारी और मुखातिब होकर पूछने लगे कि मेरा चिलम पीने
का टाईम हो गया है तुम भी पीयोगे क्या? हमने कहा- भिया हम तो चिलम पीते नहीं बल्कि चिलम
भरने का काम करते हैं….आप कहो तो आज आपकी भर दें?
भिया ने हमको संदेह की दॄष्टि से
देखते हुये कहा कि तुम बिना मतलब तो खुद की चिलम को पलीता नही लगाते फ़िर हमारी क्यों
भरोगे? जरूर तुम कहीं फ़ंसे हो? बोलो क्या बात है?
अब हम क्या कहते….चुपचाप बैठ गये
और संटू भिया अपने काम में मगन हो लिये. तभी भिया ने एक पेन दिखाते हुये कहा – देखो
ये पेन "कबीर" का है कई पुश्तों से हमारे कबाडे में शोभा बढा रहा है….हमने बात काटते हुये कहा,
कबीर यानि कबीर बेदी का?
अब भिया सटकते हुये बोले, अमा यार तुम इससे आगे की सोच भी
नही सकते….. अरे भले आदमी ये कबीर यानि "संत कबीर" का पेन है वो जितना भी महान साहित्य
रच गये हैं वो इसी से रच गये हैं….ये अनमोल पेन है….
हमारी समझ में आ गया
कि भिया ने आज सुल्फ़े गांजे का दम कुछ ज्यादा
ही लगा लिया है तभी तो इस तरह की बहकी बहकी
बातें कर रहे हैं.
हमने कहा – भिया, कबीर साहब तो पढे लिखे ही नहीं थे फ़िर पेन का क्या काम पड गया
उनको? भिया फ़िर सिरे से उखडते हुये बोले – भले आदमी पेन चलाने और पढे लिखे होने का
क्या संबंध? क्या कोई पीएचडी करके ही साहित्यकार, व्यंगकार, सुधारक या लिक्खाड बन सकता
है? अरे ये बनने के लिये तो अंतर्मन की पीएचडी होनी चाहिये….पेन चलाना तो फ़ावडा चलाने
जैसा ही है, जैसे मजदूर फ़ावडा चलाता है मजदूरी के लिये वैसे ही पेन भी मजदूरी के लिये चलाया जाता है....अपनी मौज में जो पेन उठाकर किसी को भी घुसेड दे वो हो सकता है कबीर...और आजकल पेन चलाता भी कौन है? सब की बोर्ड पर ठोकते हैं….. ये देखो “ग्राहम
बेल” का की बोर्ड…..
संटू भिया की बेसिर पैर की बातें सुनकर हमारा दिमाग सिरे से ही
उखड् चुका था…. हमने झल्लाते हुये कहा- भिया आज तुमको दिन भर से कोई मिला नही क्या?
जो हमको पका रहे हो? भले आदमी “ग्राहम बेल” के जमाने में तो “की बोर्ड” हुआ ही नही
करता था. अब तुम कहोगे कि ये देखो “परसाई जी” की कलम……?
अब भिया हमें कुछ मैगजींस
दिखाते हुये बोले – देखो हमारे पास परसाई जी की ये “वसुधा” मैगजीन की कुछ कापियां संभालकर
रखी हुई हैं जो हमें हमारे चचा मरहूम ने दी थी और जहां तक उनकी कलम का सवाल है तो हमने
बहुत कोशीश की, उसे ढूंढ्ने की…..कहीं से मिल जाये तो मजा आ जाये. काफ़ी कोशीसे की उनका पेन खोजने की, पर बाद में पता चला कि परसाई जी की कलम तो उनके चेलों
के बीच घूम रही है. सारे दावा करते हैं कि मेरे पास वाली कलम परसाई जी की असली कलम है….दूसरा
अपनी वाली को बताता है…..पर ये अभी तक पता नही चल पाया कि असली किसके पास है…जैसे ही
असली का पता लगेगा….हम तो उधार बैठे हैं खरीदने के लिये.
संटू भिया ने हमारे
दिमाग का दही जमा कर रख दिया था सो उस जमे हुये दही को लेकर हम घर लौट आये और अभी तक
सोच रहे हैं कि “क्या लिखूं…!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-05-2017) को
ReplyDelete"मुद्दा तीन तलाक का, बना नाक का बाल" (चर्चा अंक-2634)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
कबीर से संटू भिया तक वाया परसाई अगर कोई घुमा सकता है तो वह हैं हमारे ताऊ रामपुरिया। लगता है ब्लॉगिंग के अच्छे दिन आने वाले है।
ReplyDelete