बात उन दिनों की है जब हम 8 वीं कक्षा के होनहार विद्यार्थी हुवा करते थे। उन दिनों मे 5 वीं तक तो स्कूल
हमारे गाँव मे ही था. उसके बाद गाँव से 12 - 13 किलोमीटर दूर हाई स्कूल मे जाया करते थे. 25 -30 गांवों
के बीच एक मात्र हाई स्कूल था। एक एक क्लास के 6-6 या 7-7 सेक्शन हुवा करते थे.
अब सरदी गरमी और बरसात मे नंगे पाँव 12/13 किलोमीटर जाना और आना , इसके बाद हम क्या पढते लिखते होंगे और ये कितना दुष्कर कार्य था ये आप अंदाजा ही लगा सकते हैं. बस आप यूं समझ लीजिये की घरवालों और मास्टरों के डर से स्कूल चले जाते थे। वरना ये कोई मनोरंजक तो था नही. पर वो कहते हैं ना की जिसके भी साथ ज्यादा रहो , उससे भी प्यार हो जाता है. तो साहब यु समझ लिजिये कि हमको भी इन हालातों से प्यार हो गया और हम लोगो की शैतानियां बढ्ती ही चली गयी.
हुक्का, बीड़ी, चिलम पीना और ताश - चौपड खेलना और बेहतरीन गालियां बकना ये सब प्रिय शगल बन चुके थे. हमारे गाँव से सौ सवा सौ लड़के (लड़कियाँ नहीं, एक मात्र लडकी हमारे स्कूल मे इस घटना के दो साल बाद आयी थी. इसका जिकर आगे बाद मे आयेगा. ) कक्षा 6 ठी से 10 वीं तक की कक्षाओं के लिये भेड बकरियों के रेवड की तरह निकलता था. जैसे टिड्डी दल रास्ते मे सब साफ करता चलता है वैसे ही ये लड़कों का टोल खेत खलिहानो को रोंदता हुवा चलता था. इसी वजह से कई बार किसानो से आपस मे सर फुट्टोवल भी अक्सर होती ही रहती थी. ये फुल टाइम काम था. पढने लिखने से कोई ज्यादा मतलब नहीं था. उन दिनों जमीदारो के छोरो का तो पढने का मतलब था शादी ब्याह होने मे आसानी रहती और वो भी पट्ठे जिस क्लास मे भी शादी हो लेती उससे अगली मे नही आते. और बामन बनियो के लड़के आठ्वी दसवीं पढ के कहीं नोकरी पे लग जाते. उस समय का कुल जमा अर्थ शास्त्र यही हुवा करता था.
तो साहब यूं तो सारे ही लडके छटे हुए थे. पर ये किस्सा हमारी 8 वीं कक्षा का है. उस सेक्शन के 50/55 लड़कों
मे हम एक ही गाँव के 9 लडके थे. सारे के सारे अक्खड और छंटे हुये. इच्छा हुयी तो स्कूल पहुंचे नहीं तो बीच रास्ते, नदी किनारे, खोकरे की बंद पडी खदानों के टूटे फुटे खंडहरो मे बैठ कर ताश पत्ती खेलते , भूख लगने पर , घर से कपड़े मे बाँध कर लायी ठंडी रोटी और घंटी (प्याज) खाके पानी पी लेते. और शाम को दुसरे लड़के जब स्कूल से लौटते तब उनके साथ वापस घर हो लेते.
कोइ भी लडका एक दूसरे की इस बारे में घर या स्कूल मे चुगली नही करता था. एक अघोषित सा समझौता सब लड़कों मे था. लडॉई झगड़े की हालत मे भी ये नियम नही टूटा. क्योंकि चोर चोर मोसेरे भाई . कुछ इसी तरह की दिनचर्या 6 ठी और 7 वीं कक्षा तक तो आराम से चली. पर समस्या 8 वीं कक्षा के शुरु मे ही हो गयी.
जुलाई मे ही हमारे गणित के नये मास्टर जी श्री श्री बचन सिंह जी राजपूत ( अगर अब भी जिंदा हों तो उनसे क्षमा याचना सहित और अगर जन्नत नशीं हो चुके हों तो भगवान उनकी आत्मा को शांति दे. उनकी आत्मा की शांति मांगना इस लिये भी जरूरी है कि कहीं उनकी आत्मा को मेरे पते का पता चल गया तो मेरी फिर कुटायी शुरु कर देंगे . उनके गंगाराम (डंडा) की दहशत अभी तक मेरे मन मे समायी हुयी है. और प्रिय पाठ्को उनके डर के मारे ही मेरा असली नाम पता मैं यहाँ नहीं दे रहा हूँ . वरना आप यकीन रखिये कि मैं भी एक शरीफ और सामाजिक आदमी हू. मुझे इस तरह गुमनाम रहने की कोइ जरुरत ही नही. अब मास्टर साहब मुझे इतने लडको को छोड कर, मरने के बाद भी क्यों ढुंढते होंगे? ऐसा मैने कौनसा उनकी आँखों मे काजल पाड दिया? ये सब किस्सा आगे सिलसिलेवार आयेगा. ) ट्रांसफर होकर आये.
इसके साथ ही साथ उनके पिछले स्कूल , जहाँ से वो ट्रांसफ़र होकर आये थे, वहाँ से उनकी यश गाथा भी आ गयी. रिपोर्ट ये आई की मास्टर साब बहुत कड़क और सख्त किस्म के इंसान है और कुटायी पिटाई करने के खासे शौकीन..इतने की स्कूल मे पढने वाले खातियों (carpenter) के छोरों से हर हफ्ते दो तीन डंडे मंगवाया करते थे. और डंडे का नामकरण उन्होने गंगाराम किया हुवा था. पुरी स्कूल मे दो ही चीजें आगे जाकर famous हुयी.... एक मास्टरजी का गंगाराम और दुसरा उनका वोह 7 दिन मूवी के नीलू फूले छाप नाडा . खैर साब ...
पहले दिन प्रार्थना स्थल पर उनकी झलक देखी. जो आज भी याद है. वो कहते हैं ना की पहली नजर का प्यार याद रहता है वैसे ही वो उनकी झलक आज तक याद है....और रहेगी भी क्योंकी इस सख्स ने जितनी हमारी कुटाइ पिटाई करी है उसका दसवां हिस्सा भी हमारे वालिद साब ने और कुल जमा इतना ही और सारी दुनियां ने मिलकर हमारी पूजा पाठ की होगी. यानि ये कई जन्मों तक भुलने की चीज नही.
करीब साढे पांच फूट का कद्...... , गेहुंवा रंग....... , गोल चेहरा......., उस पर मोटी फ्रेम का चश्मा......, अंडे की जात घुटी हुयी चिकनी खोपड़ी........., नीली कमीज और इसके नीचे सफेद पायजामा....... , नाडॉ ऐसे लटक रहा था जैसे वोह 7 दिन हिंदी फिल्म के नीलू फूले का नाडा .... और पैरों मे राजस्थानी देशी जूतियां.... .कुल मिला कर इस सखशियत से डर तो नहीं लगा पर अच्छा भी नही लगा. पर उनके पिछले स्कूल के सुने हुये कारनामे याद कर करके सभी छात्र ऐसे मह्सूस कर रहे थे जैसे वो जेल मे कैदी हैं और ये नया खडूस जेलर आ गया है.
अब तो एक ही उम्मीद की किरण थी की हमारी गणित की कक्षा इन मास्टरजी को न मिले, फिर हमको क्या फर्क पड़ना है ? मन ही मन बहुत गणेश जी.. हनुमान जी को याद किया , इक्कनी का हनुमान जी का प्रसाद बोला इससे ज्यादा की औकात नही थी. पर तुलसीदास जी ने कहा है ना की जब खराब समय आ जाता है तो कोइ साथ नही देता यानि ऊंट पर बैठे मनुष्य को भी कुता काट खाता है तो इक्कनी के लिये हनुमान जी क्यों तकलीफ उठाते?... उनका कौन सा बडा नुकसान हो रहा था. इक्कनी का प्रसाद चढा की नही चढा, उनको क्या फर्क पड़ना था.
आखिर वही हुआ...हनुमान जी ने हमारा इकन्नी के प्रसाद का सौदा ठुकरा दिया और हमारी कक्षा को गणित पढाने का जिम्मा इन्हीं मास्टर साहब को ही मिला. कुल 8 पीरियड लगते थे. पहले 4 पीरियड के बाद इंटरवेल् और उसके बाद 5 वां पीरियड गणित का.
शेष अगले भाग-2 में .....
हमारे गाँव मे ही था. उसके बाद गाँव से 12 - 13 किलोमीटर दूर हाई स्कूल मे जाया करते थे. 25 -30 गांवों
के बीच एक मात्र हाई स्कूल था। एक एक क्लास के 6-6 या 7-7 सेक्शन हुवा करते थे.
अब सरदी गरमी और बरसात मे नंगे पाँव 12/13 किलोमीटर जाना और आना , इसके बाद हम क्या पढते लिखते होंगे और ये कितना दुष्कर कार्य था ये आप अंदाजा ही लगा सकते हैं. बस आप यूं समझ लीजिये की घरवालों और मास्टरों के डर से स्कूल चले जाते थे। वरना ये कोई मनोरंजक तो था नही. पर वो कहते हैं ना की जिसके भी साथ ज्यादा रहो , उससे भी प्यार हो जाता है. तो साहब यु समझ लिजिये कि हमको भी इन हालातों से प्यार हो गया और हम लोगो की शैतानियां बढ्ती ही चली गयी.
हुक्का, बीड़ी, चिलम पीना और ताश - चौपड खेलना और बेहतरीन गालियां बकना ये सब प्रिय शगल बन चुके थे. हमारे गाँव से सौ सवा सौ लड़के (लड़कियाँ नहीं, एक मात्र लडकी हमारे स्कूल मे इस घटना के दो साल बाद आयी थी. इसका जिकर आगे बाद मे आयेगा. ) कक्षा 6 ठी से 10 वीं तक की कक्षाओं के लिये भेड बकरियों के रेवड की तरह निकलता था. जैसे टिड्डी दल रास्ते मे सब साफ करता चलता है वैसे ही ये लड़कों का टोल खेत खलिहानो को रोंदता हुवा चलता था. इसी वजह से कई बार किसानो से आपस मे सर फुट्टोवल भी अक्सर होती ही रहती थी. ये फुल टाइम काम था. पढने लिखने से कोई ज्यादा मतलब नहीं था. उन दिनों जमीदारो के छोरो का तो पढने का मतलब था शादी ब्याह होने मे आसानी रहती और वो भी पट्ठे जिस क्लास मे भी शादी हो लेती उससे अगली मे नही आते. और बामन बनियो के लड़के आठ्वी दसवीं पढ के कहीं नोकरी पे लग जाते. उस समय का कुल जमा अर्थ शास्त्र यही हुवा करता था.
तो साहब यूं तो सारे ही लडके छटे हुए थे. पर ये किस्सा हमारी 8 वीं कक्षा का है. उस सेक्शन के 50/55 लड़कों
मे हम एक ही गाँव के 9 लडके थे. सारे के सारे अक्खड और छंटे हुये. इच्छा हुयी तो स्कूल पहुंचे नहीं तो बीच रास्ते, नदी किनारे, खोकरे की बंद पडी खदानों के टूटे फुटे खंडहरो मे बैठ कर ताश पत्ती खेलते , भूख लगने पर , घर से कपड़े मे बाँध कर लायी ठंडी रोटी और घंटी (प्याज) खाके पानी पी लेते. और शाम को दुसरे लड़के जब स्कूल से लौटते तब उनके साथ वापस घर हो लेते.
कोइ भी लडका एक दूसरे की इस बारे में घर या स्कूल मे चुगली नही करता था. एक अघोषित सा समझौता सब लड़कों मे था. लडॉई झगड़े की हालत मे भी ये नियम नही टूटा. क्योंकि चोर चोर मोसेरे भाई . कुछ इसी तरह की दिनचर्या 6 ठी और 7 वीं कक्षा तक तो आराम से चली. पर समस्या 8 वीं कक्षा के शुरु मे ही हो गयी.
जुलाई मे ही हमारे गणित के नये मास्टर जी श्री श्री बचन सिंह जी राजपूत ( अगर अब भी जिंदा हों तो उनसे क्षमा याचना सहित और अगर जन्नत नशीं हो चुके हों तो भगवान उनकी आत्मा को शांति दे. उनकी आत्मा की शांति मांगना इस लिये भी जरूरी है कि कहीं उनकी आत्मा को मेरे पते का पता चल गया तो मेरी फिर कुटायी शुरु कर देंगे . उनके गंगाराम (डंडा) की दहशत अभी तक मेरे मन मे समायी हुयी है. और प्रिय पाठ्को उनके डर के मारे ही मेरा असली नाम पता मैं यहाँ नहीं दे रहा हूँ . वरना आप यकीन रखिये कि मैं भी एक शरीफ और सामाजिक आदमी हू. मुझे इस तरह गुमनाम रहने की कोइ जरुरत ही नही. अब मास्टर साहब मुझे इतने लडको को छोड कर, मरने के बाद भी क्यों ढुंढते होंगे? ऐसा मैने कौनसा उनकी आँखों मे काजल पाड दिया? ये सब किस्सा आगे सिलसिलेवार आयेगा. ) ट्रांसफर होकर आये.
इसके साथ ही साथ उनके पिछले स्कूल , जहाँ से वो ट्रांसफ़र होकर आये थे, वहाँ से उनकी यश गाथा भी आ गयी. रिपोर्ट ये आई की मास्टर साब बहुत कड़क और सख्त किस्म के इंसान है और कुटायी पिटाई करने के खासे शौकीन..इतने की स्कूल मे पढने वाले खातियों (carpenter) के छोरों से हर हफ्ते दो तीन डंडे मंगवाया करते थे. और डंडे का नामकरण उन्होने गंगाराम किया हुवा था. पुरी स्कूल मे दो ही चीजें आगे जाकर famous हुयी.... एक मास्टरजी का गंगाराम और दुसरा उनका वोह 7 दिन मूवी के नीलू फूले छाप नाडा . खैर साब ...
पहले दिन प्रार्थना स्थल पर उनकी झलक देखी. जो आज भी याद है. वो कहते हैं ना की पहली नजर का प्यार याद रहता है वैसे ही वो उनकी झलक आज तक याद है....और रहेगी भी क्योंकी इस सख्स ने जितनी हमारी कुटाइ पिटाई करी है उसका दसवां हिस्सा भी हमारे वालिद साब ने और कुल जमा इतना ही और सारी दुनियां ने मिलकर हमारी पूजा पाठ की होगी. यानि ये कई जन्मों तक भुलने की चीज नही.
करीब साढे पांच फूट का कद्...... , गेहुंवा रंग....... , गोल चेहरा......., उस पर मोटी फ्रेम का चश्मा......, अंडे की जात घुटी हुयी चिकनी खोपड़ी........., नीली कमीज और इसके नीचे सफेद पायजामा....... , नाडॉ ऐसे लटक रहा था जैसे वोह 7 दिन हिंदी फिल्म के नीलू फूले का नाडा .... और पैरों मे राजस्थानी देशी जूतियां.... .कुल मिला कर इस सखशियत से डर तो नहीं लगा पर अच्छा भी नही लगा. पर उनके पिछले स्कूल के सुने हुये कारनामे याद कर करके सभी छात्र ऐसे मह्सूस कर रहे थे जैसे वो जेल मे कैदी हैं और ये नया खडूस जेलर आ गया है.
अब तो एक ही उम्मीद की किरण थी की हमारी गणित की कक्षा इन मास्टरजी को न मिले, फिर हमको क्या फर्क पड़ना है ? मन ही मन बहुत गणेश जी.. हनुमान जी को याद किया , इक्कनी का हनुमान जी का प्रसाद बोला इससे ज्यादा की औकात नही थी. पर तुलसीदास जी ने कहा है ना की जब खराब समय आ जाता है तो कोइ साथ नही देता यानि ऊंट पर बैठे मनुष्य को भी कुता काट खाता है तो इक्कनी के लिये हनुमान जी क्यों तकलीफ उठाते?... उनका कौन सा बडा नुकसान हो रहा था. इक्कनी का प्रसाद चढा की नही चढा, उनको क्या फर्क पड़ना था.
आखिर वही हुआ...हनुमान जी ने हमारा इकन्नी के प्रसाद का सौदा ठुकरा दिया और हमारी कक्षा को गणित पढाने का जिम्मा इन्हीं मास्टर साहब को ही मिला. कुल 8 पीरियड लगते थे. पहले 4 पीरियड के बाद इंटरवेल् और उसके बाद 5 वां पीरियड गणित का.
शेष अगले भाग-2 में .....
kyaa baat hai. sundar katha
ReplyDeleteवाह - ताऊ महाराज की शुरुआत दमदार थी...
ReplyDeleteखैर गंगाराम का कुछ न कुछ तो असर होगा ही.:)
हा।हा॥हा। बहुत खेले खाये ही ताऊ आप भी। :)
ReplyDeleteऐसे सुनहरे दिन नई पीढ़ी के छात्रों को कहाँ नसीब ?
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