होरासियो विलेगेस ने 13 अप्रैल से 13 मई के बीच तीसरे विश्वयुद्ध की जब से घोषणा की है तबसे राम राम करते महीना पूरा होने में है. जिस तरह पेड़ की ऊंचाई से उतरते समय आदमी ऊँचाई से तो नही गिरता पर नीचे आकर जरूर से टपक लेता है कुछ वैसा ही हाल हमारा था. कल ही 13 मई थी और भविष्यवाणी का यही आखिरी दिन, एक एक पल काटना मुश्किल, अब बम गिरेगा, तब बम गिरेगा. अब दुनियां के साथ साथ हम खत्म होंगे......और तो और हमको सबसे ज्यादा दुख तकलीफ इस बात की थी कि सारे फेसबुकिये मित्र भी छूट जाएंगे......फ़िर हम अपने मन को दिलासा देते कि ब्लागर से बिछुडे मित्र फ़ेसबुक पर मिल गये तो इस दुनियां से बिछुडकर कहीं और मिल जायेंगे. इन सब चीजों से बेखबर अनूप शुक्ल जी ने मौज लेते लेते आज का विषय थमा दिया "टेलीफोन". अब बताइये, ऐसे माहौल में कोई टेलीफोन के बारे में लिख सकता है क्या? पर सुकुल जी ठहरे ऐसे गुरू, जो परीक्षा में बच्चों को कठिन से कठिन सवाल ही पूछेंगे.
वैसे भी आजकल के मोबाइलों में वो आकर्षण नही है जो पुराने जमाने के डायल वाले टेलीफूंनो में था। इन कम्बख्तों के सीने में इतने बड़े बड़े राज दफन हैं कि शरीफ आदमी तो इनकी बात सुनकर ही प्राण त्याग दे. इनकी बातचीत सुनकर तो ऐसा लगता है की कहीं ये हमारी भी इज्जत के पंचनामे ना करवा दें.
आज के विश्वयुद्ध से बचें, यही प्राथमिकता थी, इससे बच पाए तो टेलीफोन की भी सुनी जाएगी। इसी टेंशन में हम चले जा रहे थे कि संटू भिया की खनकती आवाज से होश आया कि हम तो संटू भिया के कबाड़खाने आ पहुंचे हैं. भिया के कबाड़खाने में एक तलघर भी था, हम अपने डर की वजह से भिया के साथ सुरक्षित रूप से उनके "एंटी-न्युक्लियर बंकर" जैसे तलघर में ही आज का दिन काटना चाहते थे, सो जाकर वहीं एंटी-न्युक्लियर बंकर जैसे तहखाने में जम लिए.
तहखाने में कई तरह के कबाड़ पड़े थे तभी हमको अपने पीछे से कुछ बाते करने की आवाजें सी आती मालूम पड़ी...... एक बार तो हम डरे की कहीं ये हमारे उस्तादों वाली शीला...रुपा या रामूड़ी तो नही हैं? आखिर वो भी परमाणु हमले से बचने के लिए यहां आ छुपी हों? उस्ताद लोग उन्हें अपने हाल पे छोडकर सुरक्षित मांद में मजे कर रहे हैं और ये बेचारी शीला और रूपा यहां दिन काट रही हैं.
खैर हमारा ख्याल गलत निकला…..वहां तरह तरह के पुराने बाबा आदम के जमाने के टेलीफ़ोनों का ढेर लगा था और वो आवाजे उन्हीं के बतियाने की थी. वो बीते जमाने की बातें कर रहे थे. उनकी बातें सुनकर हम अपना डर भूलकर ध्यान से सुनने लगे. उनमें एक जो बहुत ही क्लासिकल मोडल था जिसे आपने फ़िल्मों में जरूर देखा होगा…..वहां रखे सभी फ़ोनों में बुढ्ढा होने के बावजूद भी उसमें एक शाही गरूर सा लगा….हमने पूछा, दद्दा, आप तो फ़िल्मों में होते थे यहां क्या कर रहे हो?
बुढऊ ने आह सी भरते हुये कहा – क्या बतायें…हम तो सुरैया बेगम के ड्राईंग रूम में रहते थे और उन्हीं के इश्क में गिरफ़्तार होकर रह गये थे……हाय हमें अपने नाजुक नाजुक हाथों से पकड कर जब वो देव साहब से प्यार भरी बाते करती थी तो हमें चूम लिया करती थी, कसम से क्या दिन थे वो भी…..वो थोडा खांसा,,,,शायद बुढापे का असर था उस पर….फ़िर कहने लगा कि एक दिन देव साहब से बातें करते देखकर उनकी अम्मा ने हमे चूमते हुये देख लिया, बस फ़िर क्या था, अम्मा ने हमें ही उठाकर फ़र्श पर दे मारा और हमारी दोनों टंगडियां टूट गई और उस दिन के बाद हमने सुरैया बेगम की शक्ल तक नही देखी. और अब तक इंतजार में दिन काट रहे हैं……हाय मेरा इश्क परवान ना चढ सका, वो आह सी भरते हुये बोला….
तभी बीच में एक काला कलूटा सा बिल्कुल ही गरीब श्रेणी का डायल वाला पहलवान टाईप का फ़ोन बोल पडा – अरे ओ बुढऊ…अब कहां तेरा इश्क…वो तो कब का पाकिस्तान निकल लिया था बे. अरे इश्क तो हमने किये नही पर देखे खूब हैं….हमको ये काला पहलवान कुछ राजदार सा लगा सो हम उसकी तरफ़ मुखातिब हो लिये…पहलवान को जब लगा कि हम उसे तवज्जो दे रहे हैं तो शुरू हो गया. बोला…साहब वो भी क्या दिन थे? आजकल तो हर छोरे छारी की जेब में मोबाईल नाम का फ़ोन रहता है, हमारी तो क्या अब मोबाईल की भी कोई बख्त नही रही. अगला मोडल आते ही पिछला कबाडे में चला जाता है. और एक हमको देखो….सेठ लोगों की तिजोरियों के बराबर बैठा करते थे और सुबह सुबह सेठजी आकर लक्ष्मी जी के साथ साथ हमारी भी आरती उतारा करते थे. और हमारी छाती में तो इतने राज दफ़्न हैं कि यदि खोल दें तो भूचाल आ जाये.
हमने कहा भैये…ये भूचाल राहल गांधी और नसीमुद्दीन वाले ही हैं या कुछ सही भी हैं? वो नाराज होते हुये बोला – देखो साहब आप गाली तो हमें दो मत. हम राजनेता नही हैं हम तो वफ़ादार किस्म के हैं इसीलिये एक एक राज सीने में दफ़्न करके बैठे हैं.
हमने कहा – चचा…इता बोझ सीने पर लिये काहे बैठे हो….आपका अंत तो हो लिया….कुछ अपने राज हल्के करलो तो सकून से अगला जन्म ले पाओगे. खोल दो अपने दिल की गिरह….वो कुछ सोचते हुये बोला…अब क्या सेठजी की बेईमानी का राज खोलूं या सेठानी जी की बेवफ़ाई का या सेठ जी की छोरी शीला या रूपा का……?
शीला या रूपा नाम सुनते ही हमारी बत्ती टिमटिमाने लगी….हमने पूछा चचा कहीं तुम वो मढाताल वाले सेठ धन्नालाल के फ़ोन तो नही हो? वो खुशी से चहकते हुये बोला – अरे आप हमको कैसे पहचान लिये इत्ते सारे फ़ोनों में…..
अब हम क्या बोलते…..कि हम भी कयामत की नजर रखते हैं….पर हमने उसे चने के झाड पर चढाते हुये कहा – चचा आप यहां रखे सभी फ़ोनों में खानदानी लगते हो…बाकी में दम नही लगता. वो खुश होकर खिलखिलाने लगा….हमने लोहा गर्म जानकर अपने मतलब की बात पूछी….चचा आप कुछ वो शीला या रूपा की बात कर रहे थे……
काले पहलवान ने तो अब हमको अपना खास सगा मान लिया था सो बोला – आपको तो मालूम ही होगा कि किस्सा क्या हुआ था? हमने कहा मालूम तो है ही है, पर वो सब उडती उडती सी खबरें ही थी अब आपके मुंह से सुने तो पक्का हो. वो बोला – आदमी तो आप सलीके के लगते हो, उडती बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिये बल्कि कानों सुनी पर ही करना चाहिये. वो किस्सा कुछ ऐसे हुआ था कि शीला बेबी कालेज जाने लगी थी…. और थी भी बला की खूबसूरत…..हमको जब अपने होंठों के पास ले जाकर हैल्लो कहती थी तो हमारे दिल की धडकने बढ जाया करती थी……और सच में बुढऊ टेलीफ़ोन की सांसे तेज चलने लगी….खांसने लगा, हमने सोचा कहीं ये सारे राज सीने में लिये लिए ही राम नाम सत्य ना हो जाये….हम इत्ता सोच भर रहे थे कि बुढऊ की आवाज आई… हां तो हम कहां थे….हमने कहा – चचा आप वो शीला वाला किस्सा बता रहे थे….
शीला के नाम से ही उसके काले चेहरे पर ऐसी चमक आगयी जैसे किसी ने चेरीब्लासम वाली पालिश करदी हो. वो कहने लगा – जब शीला बेबी कालेज से आती तो एक गोल मटोल सा हैंडसम लडका अपनी साईकिल लिये पीछे पीछे आने लगा….कुछ दिन तो यूं ही चलता रहा फ़िर मालुम पडा कि वो पास ही में रहने वाला है…कुछ तो नाम था उसका…याद नहीं आ रहा…..शायद…….मीर लाल या ऐसे ही कुछ था…
अब क्या बताये वो तो शीला बेबी और उसकी सहेली रूपा के पीछे हाथ धोकर ही पड गया, जब रास्ते में बात नही बनी तो उस लडके ने नया तरीके का पैंतरा खोज लिया और अपने दोस्तों से हम पर फ़ोन करवाने लगा. घंटी बजती और उधर से कोई कहता , जी आपके पड़ौस में वो ...मीर रहता है ना उसे बुलवा दीजिये... बहुत जरूरी काम है. फोन उठाने वाली शीला या रूपा होती तो ऐसी ऐसी बातें होती कि क्या बताऊँ....हम भी सेठ जी के यहां 3 पीढ़ी से रहे थे पर साहब ऐसा आशिक नही देखा था.... उसे बुलाने जब कभी बेबी उसके घर जाती तो वहीं इनकी मिलने की ख्वाहिश पूरी हो लेती थी.
एक दिन का किस्सा बताऊं....मैं बजा ट्रिन...ट्रिन...ट्रिन...ट्रिन... फोन घर के नौकर रामचरण ने उठाया, क्योंकि बेबी उस समय घर पर नहीं थी, उधर से कोई बोला कि मैं ..मीर का मौसा बोल रहा हूँ मीर को बुलवा दीजिये.....हमें रोज रोज की कसरत से शक तो हो ही चला था…हम भी दम साधे सुनते रहे....नौकर ..मीर को बुला लाया.... आते ही उसने घर मे चोर नजरों से किसी को ढूंढते हुए हैल्लो कहा…...हाँ मौसा जी नमस्ते, हाँ क्या कहा.... मौसी जी की तबियत खराब है?......
उधर से मौसा बोला - अबे स्साले मैं अमर बोल रहा हूँ बे.......अबे मैंने तेरी वाली को फ़ोन कर दिया है अब तू जाकर मेरी वाली को फ़ोन करदे….हमारा शक सही साबित हुआ.... हमसे क्या छुप सकता था क्योंकि बात तो हमारे द्वारा ही होती थी.
खैर शीला बेबी और उसकी मेल मुलाकातें बढती गयी पर किस्सा परवान नहीं चढ सका……हमने पूछा – चचा क्या हुआ? वो कुछ बतला पाता इसके पहले ही….उसकी आखिरी सांस उखडने लगी…..हमने कहा चचा आज आराम कर लो यदि आज विश्वयुद्ध टल गया तो कल आकर आपकी पूरी कहानी सुनेंगे. हमको अब शीला का राज तो आधा अधूरा पता चल चुका था पर ये रूपा का राज राज ही रह गया…
वाकई पुराने जमाने में घर में टेलीफ़ोन का होना रसूख तो था साथ ही साथ इस तरह के दिवानों के गले पडने का सबब भी था….जमाना उस दौर से मोबाईल के जमाने में आ गया पर जो राज पुराने टेलीफ़ोनों के सीने में दफ़्न है वो मोबाईल में कहां? मोबाइल में डिलीट सुविधा है पर इन काले फोनों में असली वाला दिमाग था, इस वजह से इनसे पंगा लेना अपनी खटिया खडा करवा लेने के बराबर था.
डिस्क्लेमर: कोई भी व्यक्ति इस किस्से को अपने आप से नही जोड़े, यह सिर्फ काल्पनिक है और किसी की जिंदगी से मिलता है तो महज सिर्फ एक संयोग है, और खासकर Udan Tashtari के बारे में तो बिल्कुल नही.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-05-2017) को
ReplyDeleteटेलीफोन की जुबानी, शीला, रूपा उर्फ रामूड़ी की कहानी; चर्चामंच 2632
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कहाँ वह रोमांच के क्षण कहाँ ये मोबाइल का ज़माना.
ReplyDeleteअरे बाप रे उँगलियाँ पुराने फोन देख डायल करने के लिए आकुल-व्याकुल होने लगी हैं और ट्रिन-ट्रिन घंटी बजनी लगी हैं कानों में
ReplyDeleteबहुत खूब किस्सागोई